कई असमानी रंग और मैं!
दंगा, पंगा, रंग और मैं।
मन कितना बेरंग और मैं।
खुशियां भी अब गम जैसी हैं,
गम का काला रंग और मैं।
इक दूजे को देख रहे हैं!
कब से जारी जंग और मैं।
देश की हालत देख के दंग हैं!
होली का यह रंग और मैं।
दोनों ही हैरान खड़े हैं
होली का हुड़दंग और मैं।
औंधे मुंह बाजार गिरा है
क्या बोलें अब रंग और मैं।
जगह जगह शाहीन बाग हैं,
कैसे लोक रंग और मैं।
बेचैनी, परेशानी, दंगा!
कैसे देश के रंग और मैं।
फागुन गुज़र रहा है फिर भी,
हर मन है बेरंग और मैं।
--कार्तिका सिंह