अक्टूबर क्रांति अर्थात सात नवंबर को समरण करते हुए विशेष पोस्ट
साहित्य के रंग भी मन के रंगों को प्रभावित करते रहे
इसी ने दी ज्ञान की रौशनी और दिखाया रास्ता
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| मैक्सिम गोर्की |
वास्तव में 1905 की रूसी क्रांति ज़ार के निरंकुश शासन के खिलाफ मजदूरों, किसानों और सैनिकों के व्यापक असंतोष और अशांति का एक बेहद निकर्षजनक दौर था। लोग बेदिल से होने लगे थे। इसी दौर में जो "खूनी रविवार" की घटना के बाद भड़की थी उससे निराशा भी फैली और गुस्सा भी। लेकिन इस नाकाम क्रांति के परिणामस्वरूप भी ज़ार ने सुधारों का वादा ज़रूर किया। साथ ही एक संसद, ड्यूमा की स्थापना भी कर दी। उसे लगता था शायद लोगों का विद्रोह शांत हो जाए। ऐसा न होना था न ही हुआ।
इस सब के चलते ज़ार ने निरंकुश शक्ति की अलोकतांत्रिक परंपरा बनाए बनाए रखी। उसने सुधार का दिखावा किया था लेकिन वह सुधरा नहीं था। सियासत पर नज़र रखने वाले गहराई से सब देख रहे थे। उनकी नज़रों ने बहुत कुछ ऐसा भी देखा जो सामने नज़र नहीं आ रहा था लेकिन उसके संकेत स्पष्ट थे। इसीलिए यह क्रांति भविष्य की उथल-पुथल का एक महत्वपूर्ण पूर्वाभ्यास भी मानी जाती है।
सन 1905 की यह क्रांति बेशक नाकाम हो गई थी लेकिन क्रांति के संकल्प में कमी नहीं आई थी। क्रान्ति की ज़ोरदार कोशिशों का सिलसिला जारी था। मुख्य कारण कई थे लेकिन इनमें से आर्थिक और सामाजिक असंतोष मुख्य ही था। श्रमिकों और किसानों के जनजीवन की विकट आर्थिक स्थितियां और कठोर श्रम वातावरण के अंसतोष को बढ़ाने का काम ही कर रहा था।
इसी बीच रूसी-जापानी युद्ध से भी कई उम्मीदें थी। इस युद्ध में रूस की अपमानजनक हार से उम्मीदें टूट गई थी और नाउम्मीदी बढ़ गई थे लेकिन इन सब से भी जनता के असंतोष को और बढ़ावा मिला। लोगों का जोश कम नहीं हुआ था।
राजनीतिक दमन भी बढ़ता रहा लेकिन वह जना क्रोश को दबाने में सफल नहीं हो सका। सरकार के विरुद्ध बढ़ता असंतोष एक नै क्रांति के आधार को और मज़बूत बना रहा था। इस बेचैनी के दौर में नागरिक और राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग शामिल थी और तेज़ी से उभर रही थी।
यह वो हालात थे जब 1905 वाली क्रान्ति की कोशिशें नाकाम हो गई थी। उम्मीदें टूट चुकी थी फिर भी कहीं न कहीं राख में कुछ चिंगारियां बाकी थी। इनका सुलगना नज़र नहीं आ रहा था लेकिन अस्तित्त्व तो था। सबसे अधिक काले दिनों के दौर में भी मैक्सिम गोर्की का दिल और दिमाग उम्मीदों से भरा था हुआ। उसे अपने नावल मां की कहानी बुनते हुए एक साधारण महिला मां के रूप में नायिका बन कर सामने आई। इस नावल ने नायिकत्व की भूमिका निभाई भी। वाम और क्रान्ति की तरफ अनगिनत लोग इस नावल मां को पढ़ कर ही आकर्षित हुए। कहा जा सकता है कि इस पुस्तक ने लोगों को बहुत बड़ी संख्या में आकर्षित किया।
इस नावल से मेरी भेंट भी बहुत अनूठी थी। एक बहुत लंबी परीक्षा थी मेरे और इस पुस्तक के लगाव की। इस पुस्तक की तलाश काफी समय तक जारी रही। जहां जहां इसके मिलने की संभावना थी वहां तो यह कभी मिली नहीं लेकिन जहां जहां ऐसी कोई उम्मीद नहीं थी वहां यह मिल भी जाती रही। लेकिन बस इतना ही पता चलता की इस दूकान, दफ्तर या फिर लायब्रेरी में यह पुस्तक है। जेब खाली थी इस लिए इसे ख़रीदना मेरे बस में भी न यहीं था। वास्तव पिता जी राजनैतिक कारणों से भूमिगत थे। बहुत से रिश्तेदार भी हमसे दूरी बना चुके थे। पुलिस के आतंक से ऐसा माहौल बनना स्वभाविक ही था। बहुत सी संपतियां क़ानूनी तौर पर हमारी हो कर भी हमारे पास नहीं रही। हर रोज़ अनजानी मुसीबतों का दौर सा था। हाँ इंसान शक से भरा लगता जैसे वह हमारे मामले में आया हो। धीरे धीरे सब ठीक भी होने लगा लेकिन ज़िन्दगी नार्मल होने में बहुत समय लगा। गुरुद्वारा साहिब जाते समय भी बहुत सी आशंकाएं घेरे रखतीं। जहाँ हम रह रहे थे वह मकान किसी धार्मिक परिवार का था। वहां भाई वीर सिंह रचित कलगीधर चमत्कार के दोनों भाग पढ़े। बहुत ऊर्जा मिलती थी उन्हें पढ़ते हुए।
ऐसे में मैंने जिन पुस्तकों के नाम सुने और इन्हें पढ़ने की इच्छा भी व्यक्त की उन पुस्तकों में मैक्सिम गोर्की की यह महान रचना मां भी थी। कुछ लोगों से बोला भी कि मुझे कोई यह पुस्तक गिफ्ट कर दो लेकिन सभी मुझ पर हंसते और कहते आखिर कामरेड परिवार से ही हो न! चिंता न करो जल्दी पढ़ लोगे। पुस्तक बहुत समय तक नहीं मिल सकी।
दौड़ते भागते हम लोग दिल्ली में पहुंच गए क्यूंकि पंजाब के हालत हमारे लिए भी ज़्यादा खराब थे। मेरी उम्र शायद दस या ग्यारह बरस हो चुकी थी। घर में राशन कभी होता और कभी नहीं भी होता। पिता जी का कुछ पता नहीं था कि वह कहाँ है और किस हाल में हैं?। मैं और मां दिल्ली जैसे बड़े महानगर में रहने के बावजूद एक बस्ती के एक छोटे से कमरे में रहते थे। इन सभी तंगियों के बावजूद हम लोगों ने अख़बार पढ़ना नहीं छोड़ा था। वहां अखबार सुबह मुँह अँधेरे ही आ जाया करती थी।
वक़्त निकलता जा रहा था लेकिन भूख प्यास तो हर रोज़ लगने लगती। इसका सिलसिला रुकता ही नहीं था। इस भूख से भागने के लिए मैंने लायब्रेरी में जाना शुरू किया। हमारे नज़दीक ही रेडियो कॉलोनी हुआ करती था। सड़क के इस तरफ हम थे जिसे कुछ लोग धक्का कॉलोनी कहते और कुछ लोग ढक्का कॉलोनी। सड़क के किनारे थी यह ढक्का कॉलोनी। घर से निकल कर सड़क किनारे पहुँचते तो पीठ पीछे था यह इलाका।
बायीं तरफ जाने वाली बस या ऑटो पकड़ लो तो किंग्ज़वे कैंप आ जाता। दायीं तरफ चलो तो निरंकारी कॉलोनी जहाँ बस का रुट समाप्त हो जाता था। सड़क को पार कर लो तो रेडियो कॉलोनी और उसके साथ सटी छोटी सी सड़क वाला रास्ता पकड़ते तो मॉडल टॉऊन आ जाता और उसके बाद कई और रस्ते भी।
उस रेडियो कोलोनी के अंदर जा कर ही तकरीबन चार कमरों वाली लायब्रेरी आ जाती थी और गेट में दाखिल हुआ बिना बाहर से निकल जाओ तो साथ सटी सड़क मॉडल टाउन चली जाती। उसी कॉलोनी में स्थित था सामुदायिक केंद्र और इसी केंद्र में थी सरकारी लाइब्रेरी भी। तब तक मुझे हिंदी पढ़ना लिखना भी आ गया था। इसलिए वहां मौजूद लायब्रेरी में बैठ कर मैं वे सभी अखबारें पढ़ता जिन्हें हर रोज़ खरीदना मेरे बस में नहीं था उन दिनों।
दैनिक नवभारत टाईम्ज़ और दैनिक हिंदुस्तान अख़बारों के साथ साथ धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान, कादम्बिनी. जाह्नवी, सरिता मुक्ता, चम्पक और बहुत सी अन्य अखबारें और पत्र पत्रिकाएं इसी लायब्रेर में पढ़ी। लायब्रेरी का स्टाफ सारा दिन देखता... कि यह बच्चा लगातार सारा सारा दिन यहाँ बैठ कर पढता है लेकिन खाता पीता कुछ भी नहीं। एक दिन एक मैडम मुझे बाहर परके में बुलाने आई कि चलो सर बुला रहे हैं। मुझे लगा बस अब लाइब्रेरी आना बंद हो जाएगा न जाने कौन सा एतराज़ लगाने की तैयारी में हैं।
उन्होंने मुझे चाय पिलाई, साथ में दो मट्ठियां भी। साथ ही कहा यह चाय और मट्ठियां हमारी तरफ से पक्की हो गई। आप हमारे स्टाफ के साथ ही पियोगे हमारी तरफ से। बस अंदर आ कर बैठा करो। एक मेज़ और कुर्सी भी दे दी गई। एक पेन्सिल, बाल पेन और नोटबुक भी। धीरे धीरे मैं उनके साथ कुछ काम भी करवाने लगा।
फिर वो कई बार मुझे कुछ पैसे भी देने लगे। वे मुझे किसी होब पर भी ऐडजस्ट करना चाहते थे लेकिन मेरी उम्र बहुत छोटी थी। एक दिन मैंने पुछा क्या मुझे मैक्सिम गोर्की के नावल मां को पढ़ सकता हूँ? क्या यह पुस्तक यहाँ उपलब्ध है? यह सुन कर स्टाफ के इंचार्ज ने मुझे बहुत ध्यान से देखा और वहां अपनी एक सहायक से कहा कि इस किताब को अभई ढून्ढ कर लाओ। सहायक के लिए ज़रा भी मुश्किल नहीं था। वह तुरंत इस पुस्तक को ले आई। इंचार्ज साहिब ने यह पुस्तक मुझे दी और कहा पूरे मनोटोग से पढ़ना इसे पढ़ने में दो दिन लगें या बीस दिन लगें।
इस तरह मिली मुझे यह ऐतिहासिक किताब "मां"इसे पढ़ने के बाद भी काफी कुछ हुआ। इस संबंध में भी कई दिलचस्प कहानियां हैं। इन की चर्चा जल्द ही किसी अलग पोस्ट में।

