Tuesday, August 17, 2021

मन किसी एक का होकर नहीं रह सकता--ओशो

 कहीं तो प्रशिक्षण लेना पड़ेगा मन को साधने का 


ओशो मन पर बहुत गहरी चोट करते हैं। शायद यही तरीका है मन की शक्ति से लाभ लेने का। मन पर सिर्फ चोट ही नहीं करते  उसे जागरूक भी बनाते हैं। उसे जगाते भी हैं। उसी के साथ सोई हुई शक्तियां जागती हैं। साथ ही भारतीय संस्कृति और धर्म की उन बातों का मर्म भी समझाते हैं जो हम लकीर के फकीर बन कर  माने तो चले जाते हैं लेकिन  उसकी थाह आज तक नहीं समझ पाए। 

ओशो कहते हैं: *मन वेश्या की तरह है। किसी का नहीं है मन। आज यहां, कल वहां; आज इसका, कल उसका।*

मन की कोई मालकियत नहीं है। और मन की कोई ईमानदारी नहीं है। 

*मन बहुत बेईमान है। वह वेश्या की तरह है। वह किसी एक का होकर नहीं रह सकता।* 

और जब तक तुम एक के न हो सको, तब तक तुम एक को कैसे खोज पाओगे?

*न तो प्रेम में मन एक का हो सकता है; न श्रद्धा में मन एक का हो सकता है—और एक के हुए बिना तुम एक को न पा सकोगे*। 

तो कहीं तो प्रशिक्षण लेना पड़ेगा—एक के होने का।

*इसी कारण पूरब के मुल्कों ने एक पत्नीव्रत को या एक पतिव्रत को बड़ा बहुमूल्य स्थान दिया।* 

उसका कारण है। उसका कारण सांसारिक व्यवस्था नहीं है। उसका कारण एक गहन समझ है। *वह समझ यह है कि अगर कोई व्यक्ति एक ही स्त्री को प्रेम करे, और एक ही स्त्री का हो जाए, तो शिक्षण हो रहा है एक के होने का*। 

*एक स्त्री अगर एक ही पुरुष को प्रेम करे और समग्र—भाव से उसकी हो रहे कि दूसरे का विचार भी न उठे, तो प्रशिक्षण हो रहा है; तो घर मंदिर के लिए शिक्षा दे रहा है; तो गृहस्थी में संन्यास की दीक्षा चल रही है।*

 *अगर कोई व्यक्त्ति एक स्त्री का न हो सके, एक पुरुष का न हो सके, फिर एक गुरु का भी न हो सकेगा; क्योंकि उसका कोई प्रशिक्षण न हुआ।* 

*जो व्यक्ति एक का होने की कला सीख गया है संसार में, वह गुरु के साथ भी एक का हो सकेगा।* 

*और एक गुरु के साथ तुम न जुड़ पाओ तो तुम जुड़ ही न पाओगे*। 

वेश्या किसी से भी तो नहीं जुड़ पाती। और बड़ी, आश्चर्य की बात तो यह है कि *वेश्या इतने पुरुषों को प्रेम करती है, फिर भी प्रेम को कभी नहीं जान पाती*।

अभी एक युवती ने संन्यास लिया। वह आस्ट्रेलिया में वेश्या का काम करती रही। उसने कभी प्रेम नहीं जाना। *यहां आकर वह एक युवक के प्रेम में पड़ गई, और पहली दफा उसने प्रेम जाना। और उसने मुझे आकर कहा कि इस प्रेम ने ही मुझे तृप्त कर दिया; अब मुझे किसी की भी कोई जरूरत नहीं है*। और उसने कहा कि आश्चर्यों का आश्चर्य तो यह है कि मैं तो बहुत पुरुषों के संबंध में रही; लेकिन मुझे प्रेम का कभी अनुभव ही नहीं हुआ।

*प्रेम का अनुभव हो ही नहीं सकता बहुतों के साथ।* 

*बहुतों के साथ केवल ज्यादा से ज्यादा शरीर का भोग, उसका अनुभव हो सकता है।* 

*एक के साथ आत्मा का अनुभव होना शुरू होता है; क्योंकि एक में उस परम एक की झलक है। छोटी झलक है, बहुत छोटी; लेकिन झलक उसी की है*.............

 _*ओशो*_  

 *सुन भई साधो–(प्रवचन–17)*

मन की उलझनें जब सुलझने लगती हैं तो इंसान बिलकुल नया ही बन जाता है। ओशो इस सारी  कैमिस्ट्री को बहुत अच्छी तरह जानते हैं। इसी लिए उनके शब्द पलों में ही सब बदल देते हैं। नेपाली ओशो कहते हैं:


मन के जोड़ का ,

         सारा खेल है ।

मन को तुम शरीर ,

         से जोड़ दो .!

             संसारी हो जाते हो .!!

 और मन को तुम ,

       आत्मा से जोड़ दो ;

            सन्यासी हो जाते हो .!!#ओशो


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