Friday, August 26, 2022

पत्रकार सतीश कत्याल ढूंढ कर लाए ज़िंदगी की मार्मिक कहानी

Friday 26th August 2022 at 07:14 PM 

 सब कुछ एक रोचक कहानी के रूप में 

संकेतक फोटो Pexels-Photo by Cottonbro

लुधियाना
: 26 अगस्त 2022: (मन के रंग डेस्क):: 

जानीमानी शख्सियत राकेश भारती मित्तल के साथ
पत्रकार सतीश कत्याल
 
पत्रकार सतीश कत्याल से मुझे हमेशां एक शिकायत रही कि आपको पत्रकार नहीं लेखक या शायर होना चाहिए था। आप हर बात को दिल पर ले लेते हैं इस तरह पत्रकारिता थोड़े होगी? जबकि मेरा अपना स्वभाव भी इसी तरह का था। मुझे खुद भी लगता अच्छाई भली शायरी और कहानी छोड़ कर इस तरफ क्यूं आ गया? शायद यही होती है किस्मत। यही होती है कर्मों के फल की कहानी। हम लोगों ने ओंड़गी के बहुत से साल खबरों की दुनिया के नाम कर दिए। रात रात भर कभी सिविल अस्पताल, कभी थाने और कभी घटनास्थल। आधी रात के बाद  घर पहुंचना। डिनर कर लिए तो कर लिए नहीं किया तो नहीं भी किया। बस आते सार खबर लिखनी, फैक्स करनी तब कहीं चाय पानी की बात सोचना और फिर अपने अपने घर सो जाना। अब फिर दोनों की संतान पत्रकारिता में है। बहुत कुछ यद् आता है तो आज भी सारा ध्यान अतीत में चला जाता है। आज सतीश कत्याल साहिब ने एक पोस्ट भेजी.शीर्षक है एक रोचक कहानी।  पता नहीं पहले कहीं  छपी भी हो। इसका मूल लेखक कौन है यह भी नहीं मालुम लेकिन इसे जितना पढ़ा जाए उतना ही कम है। हमारी ज़िंदगी की बहुत अहम बात बताती है यह कहानी। 

कहानी है स्कूल के चार करीबी दोस्तों की आंखें नम करने वाली कहानी है। जिन्होंने एक ही स्कूल में कक्षा बारवीं तक पढ़ाई की है। हम भी शायद चार या ज़्यादा थे। दिन रात एक साथ रहने वाले मित्रों की मंडली। याद करें तो बहुत सी बातें याद आती हैं। मैं चाय बहुत पीत था और कत्याल साहिब सिगरेट बहुत पीते थे लेकिन अब तो हाथ भी नहीं लगाते। उस समय शहर में इकलौता लग्ज़री होटल भी था। खान पान के मामले में उस समय का केंद्रीय स्थान कहा जा सकता है। 

अब लौटते हैं चार मित्रों की बात पर। कक्षा बारवीं की परीक्षा के बाद इन चारो मित्रों ने तय किया कि हमें उस होटल में जाकर चाय-नाश्ता करना चाहिए। हर साधारण इंसान के बस में नहीं था वहां जाना। महंगा भी तो था। उन चारों ने मुश्किल से चालीस रुपये जमा किए, रविवार का दिन था, और साढ़े दस बजे वे चारों अपने अपने साईकल से उस होटल में पहुंचे। 

चारो मित्र सीताराम, जयराम, रामचन्द्र और रविशरण चाय-नाश्ता करते हुए बातें करने लगे। ज़िंदगी का एक अहम पड़ाव पूरा हो ग़ज़ा था। नया अध्याय शुरू होने को थे। नै मंज़िलें और नए रास्ते सामने आने वाले थे। उन चारों ने सर्वसम्मति से फैसला किया कि 40 साल बाद हम पहली अप्रैल को इस होटल में फिर मिलेंगे। उस समय के वायदे और संकल्प इत्यादि इसी ढंग तरीके के हुआ करते थे। चालीस साल बाद मिलने का वायदा हुआ। सोचने लगे तब तक हम सब को बहुत मेहनत करनी चाहिए, यह देखना दिलचस्प होगा कि किसकी कितनी प्रगति होती है। कौन इस सफर  पहुंचता है। किस्मत किस पर मेहरबान होती है और लक्ष्मी किस पर कृपा करती है। चालीस साल बाद मिलने का वायड हुआ तो साथ ही यह भी तय हुआ कि जो दोस्त उस दिन बाद में होटल आएगा उसे उस समय का होटल का बिल देना होगा। उनदिनों  भी लेट आने का सही जुरमाना कुछ इसी तरह का ही हुआ करता था। 

उनको चाय नाश्ता परोसने वाला वेटर कालू भी यह सब सुन रहा था, उसने कहा कि अगर मैं यहाँ रहा, तो मैं इस होटल में आप सब का इंतज़ार करूँगा। इस तरह वह भी इस मित्रमंडली में शामिल भी हुआ और गवाह भी रहा। संखजा अब चार से पांच हो गई थी। इस तरह इस मुलाकात के बाद आगे की शिक्षा के लिए चारों मित्र गले किले और अलग- अलग हो गए।

सीताराम शहर छोड़कर आगे की पढ़ाई के लिए अपने फूफ़ा के पास चला गया था, जयराम आगे की पढ़ाई के लिए अपने चाचा के पास चला गया, रामचन्द्र और रविशरण को शहर के अलग-अलग कॉलेजों में दाखिला मिला। चारों के रास्ते अलग हो गए थे। चारों को मंज़िलों की तलाश थी। अजीब बात कि आम तौर पर हर दौर में में जीवन की सफलता ही बहुत से लोगों की मंज़िल रही। फिर उनके बच्चों की--फिर उनके बच्चों की। जीवन की अंतर्यात्रा पर तो गौतम बुद्ध और ओशो जैसे  बहुत काम लोग ही निकल सके। अंतर्यात्रा पर निकलने वालों को आम तौर पर दुनिया असफल इंसान समझ लेती है क्यूंकि पैसा उनकी मंज़िल ही नहीं रहता। पद और शोहरत को वे लोग समझते ही।  पर सफलता का पैमाना वही सफलता है जिस की तलाश इन चारो मित्रों को भी थी।  

आखिरकार रामचन्द्र भी शहर छोड़कर चला गया। दिन, महीने, साल बीत गए। वक्त पंख लगा कर उड़ता चला गया। इलाकों, इमारतों और रास्तों के रंग रूप ही बदल गए। इन 40 वर्षों में उस शहर में आमूल-चूल परिवर्तन आया, शहर की आबादी बढ़ी, सड़कों, फ्लाईओवर ने महानगरों की सूरत बदल दी। शहर की पहचान ही कहां  आती थी। शहर की वो चालीस साल पहले वाली सादगी अब लुप्त हो चुकी थी। जिस होटल प् मिलना था अब वह होटल भी स्टार होटल बन गया था, वेटर कालू अब कालू सेठ बन गया और साथ ही इस होटल का मालिक भी बन गया था।

एक लम्बा अरसा गुज़र चूका था। चार दश्क अर्थात 40 साल बाद, निर्धारित तिथि, पहली अप्रैल भी आ गई। दोपहर में, एक लग्जरी कार होटल के दरवाजे पर आई। सीताराम कार से उतरा और पोर्च की ओर चलने लगा, सीताराम के पास अब तीन ज्वैलरी शो रूम हो चुके थे। उसने बहुत पैसा कमा लिया था। 

सीताराम होटल के मालिक कालू सेठ के पासपहुंचा, दोनों एक दूसरे को देखते रहे। भीगी आंखों में ख़ुशी भी थी। कालू सेठ ने कहा कि रविशरण सर ने आपके लिए एक महीने पहले एक टेबल बुक किया था। सो आप आइए। आपका स्वागत है। 

सीताराम मन ही मन खुश था कि वह चारों में से पहला था, इसलिए उसे आज का बिल नहीं देना पड़ेगा, और वह सबसे पहले आने के लिए अपने दोस्तों का मज़ाक उड़ाएगा।

एक घंटे में जयराम भी आ गया, जयराम भी तरक्की कर के शहर का बड़ा राजनेता व बिजनेस मैन बन गया था। उसका छ ख़ासा नाम था पूरे इलाके में। उसकी तूती बोलती थी। 

अब दोनों बातें कर रहे थे और दूसरे मित्रों का इंतज़ार कर रहे थे, तीसरा मित्र रामचन्द्र आधे घंटे में आ गया।

उससे बात करने पर दोनों को पता चला कि रामचन्द्र भी अब बहुत बड़ा बिज़नेसमैन बन गया है।

तीनों मित्रों की आंखें  बार-बार दरवाजे पर जा रही थीं, रविशरण कब आएगा ?

इतनी देर में कालू सेठ ने कहा कि रविशरण सर की ओर से एक मैसेज आया है, तुम लोग चाय-नाश्ता शुरू करो, मैं आ रहा हूँ।

तीनों 40 साल बाद एक-दूसरे से मिलकर खुश थे।

घंटों तक मजाक चलता रहा, लेकिन रविशरण नहीं आया।

कालू सेठ ने कहा कि फिर से रविशरण सर का मैसेज आया है, आप तीनों अपना मनपसंद मेन्यू चुनकर खाना शुरू करें।

खाना खा लिया तो भी रविशरण नहीं दिखा, बिल मांगते ही तीनों को जवाब मिला कि ऑनलाइन सिस्टम से बिल का भुगतान भी हो गया है।

शाम के आठ बजे एक युवक कार से उतरा और भारी मन से निकलने की तैयारी कर रहे तीनों मित्रों के पास पहुंचा, तीनों उस आदमी को देखते ही रह गए।

युवक कहने लगा, मैं आपके दोस्त का बेटा यशवर्धन हूँ, मेरे पिता का नाम रविशरण  है।

पिताजी ने मुझे आज आपके आने के बारे में बताया था, उन्हें इस दिन का इंतजार था, लेकिन पिछले महीने एक गंभीर बीमारी के कारण उनका निधन हो गया।

उन्होंने मुझे देर से मिलने के लिए कहा था, अगर मैं जल्दी निकल गया, तो वे दुखी होंगे, क्योंकि मेरे दोस्त तब नहीं हँसेंगे, जब उन्हें पता चलेगा कि मैं इस दुनिया में नहीं हूँ, तो वे एक-दूसरे से मिलने की खुशी खो देंगे।

इसलिए उन्होंने मुझे देर से जाने का आदेश दिया था।

उन्होंने मुझे उनकी ओर से आपको गले लगाने के लिए भी कहा था, यशवर्धन ने अपने दोनों हाथ फैला दिए।

आसपास के लोग उत्सुकता से इस दृश्य को देख रहे थे, उन्हें लगा कि उन्होंने इस युवक को कहीं देखा है।

यशवर्धन ने कहा कि मेरे पिता शिक्षक बने, और मुझे पढ़ाकर कलेक्टर बनाया, आज मैं इस शहर का कलेक्टर हूँ।

सब चकित थे, कालू सेठ ने कहा कि अब 40 साल बाद नहीं, बल्कि हर 40 दिन में हम अपने होटल में बार-बार मिलेंगे, और हर बार मेरी तरफ से एक भव्य पार्टी होगी।

अपने दोस्त-मित्रों व सगे-सम्बन्धियों से मिलते रहो, अपनों से मिलने के लिए बरसों का इंतज़ार मत करो, जाने कब किसकी बिछड़ने की बारी आ जाए और हमें पता ही न चले।

शायद यही हाल हमारा भी है। हम अपने कुछ दोस्तों को सलाम दुआ मुबारक बाद आदि का मैसेज भेज कर ज़िंदा रहने का प्रमाण देते हैं।

ज़िंदगी भी ट्रेन की तरह है जिसका जब स्टेशन आयेगा, उतर जायेगा। रह जाती हैं सिर्फ धुंधली सी यादें।

परिवार के साथ रहें, ज़िन्दा होने की खुशी महसूस करें..

सिर्फ ईद दीपावली के दिन ही नहीं अन्य सभी अवसरों तथा दिन प्रतिदिन मिलने पर भी गले लगाया करें।  

मित्र सतीश कत्याल की तरफ से भेजी गई यह कहाँ केवल उन चार मित्रों की नहीं हमारी भी है। हम एक ही शहर में रहते हुए भी कहां मिल पाते हैं एक दुसरे से। ऐसी तरक्की और ऐसी कमाई भी किस काम की जो अपनों से ही दूर कर दे। क्या सचमुच महंगाई और अन्य झमेलों ने हमें एक दुसरे से मिलने में  रुकावटें खड़ी कर दी हैं? आइए धर्म, जाती, पार्टी और सियासत को एक तरफ रखते हुए एक दुसरे से मिले करें जैसे शुर शुर में मिला करते थे। -रेक्टर कथूरिया 

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