इस जीवन चक्र में भी हम कविता ढूंढ़ने के प्रयास में रहते हैं!
सचमुच ज़िंदगी टुकड़ों में ही तो मिलती है--
कहीं कम तो कहीं ज़्यादा मिलती है--
बालपन मिलता है और छूट जाता है--
या फिर छिन जाता है!
फिर यौवन आता है और वो भी छूट जाता है
या फिर छिन जाता है..!
फिर बुढ़ापा आता है
और वो भी छिन जाता है या छूट जाता है!
बहुत से सवाल हमारे ज़हन में भी आते हैं
फिर जवाब भी आते हैं---
कि यह सब तो महात्मा बुद्ध ने भी सोचा था---!
हम क्या ज़्यादा समझदार बन गए हैं?
हम भी वही कुछ सोचने लगे हैं!
फिर कोई खूबसूरत सुजाता भी सामने आती है--
खीर से भरा बर्तन भी लाती है---!
बरसों से सूखे तन को अमृत बूंदों से कुछ ताकत मिलती है!
अमृत ज्ञान की बरसात हुई लगती है!
फिर एक बेख्याली भी आती है!
उसी बेख्याली में जो कई ख्याल एक साथ आते हैं--
उनमें से एक ख्याल यशोधरा का भी तो होता है!
जिसे ज्ञान प्राप्ति के चक्करों में
अकेले सोती हुई छोड़ दिया था--
पलायन सिर्फ गौतम ने तो नहीं किया था..!
हम में से बहुत से लोग अब भी वही कर रहे हैं!
फिर राहुल की भी याद आती है--
उस बच्चे ने क्या बिगाड़ा था
उसे बालपन में ही छोड़ दिया और भाग लिए ज्ञान के पीछे ..!
अतीत बहुत से सवाल पूछने लगा है--!
भविष्य अँधियारा सा लगने लगा है!
अब शब्द बहक भी जाएँ तो भी क्या होना है--!
अब कोई ख्याल महक भी जाए तो भी क्या होना है!
चिंताएं कल भी थीं--
चिंताएं आज भी हैं!
सवालों के अंबार पहले भी--आज भी हैं!
जवाब कब मिलेंगे.....?
--रेक्टर कथूरिया
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